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Indian Law Query > Supreme Court > Supreme Court ने बलात्कार के मामले में आरोपी को क्यों दिया लाभ? जानिए मेडिकल सबूत(Medical Evidence), विरोधी गवाह(Hostile Witness) और FIR में देरी का असर!
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Supreme Court ने बलात्कार के मामले में आरोपी को क्यों दिया लाभ? जानिए मेडिकल सबूत(Medical Evidence), विरोधी गवाह(Hostile Witness) और FIR में देरी का असर!

JagDeep Singh
Last updated: 2025/03/09 at 2:23 PM
JagDeep Singh
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7 Min Read
false rape case, medical evidence,
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परिचय

भारतीय न्याय प्रणाली में बलात्कार के मामले न केवल संवेदनशील होते हैं, बल्कि इनमें मेडिकल साक्ष्य (Medical Evidence) और गवाहों के बयानों (Witness Statement) का बहुत अधिक महत्व होता है। ऐसा ही एक मामला राजेश कुमार उर्फ मन्नू बनाम हिमाचल प्रदेश सरकार का है, जिसमें Supreme Court ने हाई कोर्ट के फैसले को बरकरार रखते हुए आरोपी को बरी कर दिया।

Contents
परिचयनिचली अदालत का फैसलाAlso Read- Domestic Violence Act पर लापरवाही! Supreme Court ने States-UTs पर ठोका भारी जुर्माना!हाई कोर्ट का फैसला1. विरोधी गवाह (Hostile Witness)Also Read- बिना जांच सीधे FIR हो सकती है! सुप्रीम कोर्ट का बड़ा फैसला | Prevention Of Corruption Actमेडिकल साक्ष्य(Medical Evidence) की भूमिकाकानूनी दृष्टिकोण:Also Read- विवाह टूटने पर तलाक(Divorce) और 25 लाख का गुज़ारा भत्ता(Alimony), पासपोर्ट जब्त करने पर सख्त रोक! Supreme CourtSupreme Court का निर्णयनिष्कर्षClick Here to Read Full Order

इस केस ने मेडिकल साक्ष्यों की कमी, विरोधी गवाह (Hostile Witness) और एफआईआर दर्ज करने में हुई देरी जैसे अहम मुद्दों को उजागर किया।

यह मामला 13 अगस्त 2007 को शुरू हुआ, जब पीड़िता के पिता ने आरोपी राजेश कुमार उर्फ मन्नू के खिलाफ आईपीसी की धारा 376 (बलात्कार) और 452 (घर में अनधिकृत प्रवेश) के तहत थाना सदर, हमीरपुर में एफआईआर दर्ज कराई।

पीड़िता ने आरोप लगाया कि जब उसके माता-पिता दोपहर में दवाइयां खरीदने अस्पताल गए थे, तब आरोपी उसके घर आया और माचिस मांगने के बहाने बातचीत करने लगा। जब उसने देखा कि वह अकेली है, तो उसने उसे अंदर खींचकर जबरदस्ती दुष्कर्म किया।

पीड़िता ने यह घटना अपने माता-पिता को बताई, जिसके बाद पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराई गई। हालांकि, इस मामले में कई ऐसी बातें सामने आईं, जिनकी वजह से आरोप कमजोर पड़ गए।


निचली अदालत का फैसला

ट्रायल कोर्ट ने 14 गवाहों और आरोपी के बयान (धारा 313, दंड प्रक्रिया संहिता) के आधार पर आरोपी को दोषी ठहराया और 10 साल की कठोर कैद की सजा सुनाई।

हालांकि, आरोपी ने हाई कोर्ट में अपील की, और हाई कोर्ट ने निचली अदालत के फैसले को खारिज करते हुए आरोपी को बरी कर दिया।


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हाई कोर्ट का फैसला

हाई कोर्ट ने इस मामले में कई गंभीर खामियों की ओर इशारा किया।

1. विरोधी गवाह (Hostile Witness)

  • पीड़िता की मां (PW-9) ने अदालत में बयान देते समय अपने ही आरोपों से मुकर गई और कहा कि ऐसी कोई घटना हुई ही नहीं।
  • मां को विरोधी गवाह (Hostile Witness) घोषित कर दिया गया, और सरकारी वकील ने उससे जिरह (Cross Examination) की, लेकिन उसके बयान से कोई ठोस सबूत नहीं मिला।
  • पीड़िता के पिता (PW-8) ने भी अदालत में बयान दिया, लेकिन उन्होंने केवल घटना के पहले और बाद की घटनाओं पर बात की और एफआईआर दर्ज करने में हुई देरी का कोई संतोषजनक उत्तर नहीं दिया।
  • एफआईआर दर्ज करने में देरी ने इस मामले को और कमजोर कर दिया, क्योंकि यह संदेह पैदा करता है कि घटना के तुरंत बाद रिपोर्ट क्यों नहीं की गई।

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मेडिकल साक्ष्य(Medical Evidence) की भूमिका

इस केस में मेडिकल रिपोर्ट अभियोजन पक्ष के खिलाफ गई।

  • डॉ. सुनीता गलौड़ा (PW-7) द्वारा किए गए मेडिकल परीक्षण में कोई ठोस प्रमाण नहीं मिला कि पीड़िता के साथ बलात्कार हुआ था।
  • पीड़िता ने मेडिकल परीक्षण में सहयोग नहीं किया। उसने डॉक्टर को निजी अंगों की जांच करने भी नहीं दी।
  • पीड़िता के कपड़ों और योनि स्वैब पर न तो वीर्य (Semen) मिला और न ही रक्त (Blood)।
  • फोरेंसिक रिपोर्ट (Forensic Report) में भी आरोपी को अपराध से जोड़ने वाला कोई ठोस सबूत नहीं मिला।

हाई कोर्ट ने इस पर जोर दिया कि पीड़िता और उसके माता-पिता ने मेडिकल जांच में सहयोग नहीं किया, जिससे उनके आरोपों पर संदेह पैदा हुआ।

कानूनी दृष्टिकोण:

भारतीय न्याय प्रणाली में यह एक स्थापित सिद्धांत है कि यदि बलात्कार पीड़िता मेडिकल जांच में सहयोग नहीं करती, तो अदालत उसके आरोपों पर नकारात्मक निष्कर्ष निकाल सकती है। यह केस इसी सिद्धांत पर आधारित था।


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Supreme Court का निर्णय

हिमाचल प्रदेश सरकार ने इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील की, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के फैसले को बरकरार रखा, कोर्ट ने कहा कि हाई कोर्ट ने मामले के सभी सबूतों का सूक्ष्मता से विश्लेषण किया है और आरोपी को संदेह का लाभ देने का फैसला सही है। कोर्ट ने यह भी कहा कि जब तक हाई कोर्ट का फैसला सबूतों के गलत विश्लेषण पर आधारित न हो या वह इतना विचित्र न हो कि उसे बरकरार न रखा जा सके, तब तक सुप्रीम कोर्ट हाई कोर्ट के फैसले में हस्तक्षेप नहीं करेगी।। शीर्ष अदालत ने कहा कि अभियोजन पक्ष आरोपी को दोषी ठहराने के लिए आवश्यक प्रमाण प्रस्तुत करने में विफल रहा।

निष्कर्ष

यह केस और माननीय सुप्रीम कोर्ट का फैसला न्यायिक प्रक्रिया और सबूतों के महत्व को स्पष्ट करता है। इस केस में पीड़ित पक्ष के पास आरोपों को साबित करने के लिए पर्याप्त मेडिकल सबूत नहीं थे, और गवाहों के बयानों में अलगाव ने केस को और भी कमजोर कर दिया।सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के फैसले पर सहमति जताते हुए यह स्पष्ट किया कि न्याय की प्रक्रिया में संदेह का लाभ आरोपी को दिया जाना चाहिए, खासकर जब सबूतों की कमी हो।

यह मामला हमें यह भी याद दिलाता है कि कानूनी प्रक्रिया में सबूतों का महत्व कितना अधिक है और कैसे एक छोटी सी खामी या विरोधाभास एक मामले को पूरी तरह से बदल सकता है।

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TAGGED: false rape case, forensic science, hostile witness, medical evidence, Supreme Court
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