परिचय:
क्या मरने से पहले दिया गया बयान(Dying Declaration) किसी को फाँसी या उम्रकैद दिलाने के लिए पर्याप्त होता है? यह सवाल भारतीय आपराधिक न्याय व्यवस्था में हमेशा चर्चा का विषय रहा है। हाल ही में, Supreme Court ने Suresh Vs STATE REP. BY INSPECTOR OF POLICE (2025 INSC 318) मामले में एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया, जिसमें इस विषय पर व्यापक दिशा-निर्देश दिए गए।
यह फैसला क्यों महत्वपूर्ण है?
- कानूनी पेशेवरों के लिए: यह मामला Dying Declaration की वैधता और इसके आधार पर सजा के निर्धारण को स्पष्ट करता है।
- निवेशकों और व्यवसायों के लिए: कानूनी प्रक्रियाओं को समझना अनिवार्य है, खासकर जब कोई मामला Criminal Law से जुड़ा हो।
- सामान्य नागरिकों के लिए: यह जानना ज़रूरी है कि आपराधिक मामलों में सबूतों की जांच कैसे की जाती है।
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मामले की पृष्ठभूमि:
मामले का संक्षिप्त विवरण
मामला: Suresh Vs STATE REP. BY INSPECTOR OF POLICE (Criminal Appeal No. 540/2013)
कोर्ट: Supreme Court (2025 INSC 318)
फैसले की तारीख: 4 मार्च, 2025
मद्रास हाई कोर्ट ने 28 फरवरी 2012 को सुरेश को धारा 302 IPC(IPC Section 302) के तहत दोषी मानते हुए आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी। यह मामला 12 सितंबर 2008 को हुई एक दुखद घटना से जुड़ा है, जिसमें सुरेश की पत्नी की जलकर मौत हो गई थी।
क्या हुआ था?
- 12 सितंबर 2008: मृतका को गंभीर जलन हुई और उसे अस्पताल में भर्ती कराया गया।
- पहला बयान (12 सितंबर 2008): मृतका ने पुलिस को बताया कि वह खाना बनाते समय जल गई थी।
- दूसरा बयान (15 सितंबर 2008): मृतका ने कहा कि उसके पति ने उस पर केरोसिन डालकर आग लगा दी।
- तीसरा बयान (18 सितंबर 2008): न्यायिक मजिस्ट्रेट के सामने उसने फिर यही दोहराया कि पति ने उसे जलाया था।
- 2 अक्टूबर 2008: मृतका की मृत्यु हो गई और मामला धारा 302 IPC के तहत हत्या में बदल दिया गया।
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Supreme Court का फैसला
सुप्रीम कोर्ट ने सभी सबूतों की बारीकी से जाँच करने के बाद सुरेश को संदेह का लाभ देते हुए बरी कर दिया।
मुख्य तर्क:
✅ मरते समय दिए गए बयान में गड़बड़ियाँ:
- मृतका ने अलग-अलग मौकों पर विरोधाभासी बयान दिए।
- शुरुआती बयानों में कहा गया कि यह एक दुर्घटना थी, लेकिन बाद में पति को दोषी ठहराया गया।
✅ स्वतंत्र सबूतों की कमी:
- कोई चश्मदीद गवाह नहीं था जिसने यह देखा हो कि पति ने आग लगाई।
- डॉक्टर ने भी माना कि शरीर पर केरोसिन की गंध नहीं थी, जबकि जलाने के मामले में ऐसा होना सामान्य बात है।
- जिन गवाहों (PW-3, PW-4) ने सुरेश के पक्ष में गवाही दी, उन्हें शत्रु (hostile) गवाह घोषित कर दिया गया।
✅ मरते समय दिया गया बयान (Dying Declaration) ही अंतिम सच नहीं:
- सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सिर्फ़ Dying Declaration के आधार पर सजा देना उचित नहीं है, जब तक कि वह पूरी तरह भरोसेमंद न हो।
- कोर्ट ने Uttam बनाम महाराष्ट्र राज्य (2022) 8 SCC 576 के फैसले का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि अगर मरते वक्त दिए गए बयान आपस में मेल नहीं खाते, तो कोर्ट को स्वतंत्र साक्ष्यों की तलाश करनी होगी।
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इस फैसले का प्रभाव और महत्वपूर्ण सीख
📌 वकीलों के लिए:
- इस केस ने यह सिद्ध कर दिया कि केवल Dying Declaration के आधार पर दोष सिद्ध नहीं किया जा सकता।
- क्रॉस-एग्जामिनेशन और स्वतंत्र गवाहों की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण होती है।
📌 निवेशकों और बिज़नेस मालिकों के लिए:
- क्रिमिनल केस में सबूतों की विश्वसनीयता बहुत मायने रखती है।
- व्यापार में कानूनी जोखिमों को समझना अनिवार्य है, ताकि कोई गलत आरोप लगने पर सही न्याय मिले।
📌 सामान्य नागरिकों के लिए:
- इस केस से यह स्पष्ट होता है कि एक ही बयान को अंतिम सत्य नहीं माना जा सकता, अगर उसमें संदेह की गुंजाइश हो।
- न्याय प्रणाली में संतुलन बनाए रखने के लिए संदेह का लाभ (Benefit of Doubt) एक आवश्यक सिद्धांत है।
सुप्रीम कोर्ट के जजों ने अपने फैसले में Dying Declaration को लेकर जो टिप्पणियाँ कीं, उनमें यह स्पष्ट किया कि यदि मरते समय दिए गए बयानों में विरोधाभास हो, तो केवल इसी आधार पर दोषसिद्धि (conviction) करना उचित नहीं होगा।
जजों के सटीक शब्द:
“In cases involving multiple dying declarations made by the deceased, the question that arises for consideration is as to which of the said dying declarations ought to be believed by the court and what would be the guiding factors for arriving at a just and lawful conclusion. The problem becomes all the more knotty when the dying declarations made by the deceased are found to be contradictory.”
(Source: Judgment para 12, referring to Uttam v. State of Maharashtra, 2022)
हिंदी अनुवाद:
“अगर मृत व्यक्ति द्वारा दिए गए कई मरते समय के बयानों (Dying Declaration) में गड़बड़ियाँ या विरोधाभास हों, तो अदालत को यह तय करना होगा कि इनमें से कौन सा बयान सही माना जाए और किन आधारों पर निष्कर्ष निकाला जाए। यह समस्या और भी जटिल हो जाती है जब मरने से पहले दिए गए बयानों में आपसी अंतर हो।”
इसका मतलब साफ़ है कि यदि Dying Declaration में विरोधाभास या गड़बड़ियाँ हैं, तो अदालत को सावधानीपूर्वक अन्य सबूतों की जांच करनी होगी और बिना ठोस पुष्टि के सिर्फ Dying Declaration के आधार पर सजा देना उचित नहीं होगा।
निष्कर्ष: क्या मरते समय दिया गया बयान हमेशा सच होता है?
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से स्पष्ट है कि Dying Declaration महत्वपूर्ण सबूत होता है, लेकिन यह बिना स्वतंत्र पुष्टि के दोषसिद्धि का आधार नहीं बन सकता।
💬 आपका क्या विचार है?
क्या आपको लगता है कि इस फैसले से न्याय हुआ? या आपको लगता है कि मरते वक्त दिया गया बयान ही अंतिम सत्य होना चाहिए? अपनी राय कमेंट में ज़रूर दें!
📢 नोट: यह लेख केवल सूचनात्मक उद्देश्य के लिए है। किसी भी कानूनी सलाह के लिए योग्य अधिवक्ता से परामर्श करें।