भूमिका
कई बार सरकार Land Acquisition Act, 1894 के तहत भूमि का अधिग्रहण (land acquisition) करती है, लेकिन क्या कोई सरकारी एजेंसी निजी समझौते के जरिए अधिग्रहित जमीन लौटा सकती है? इस सवाल का जवाब सुप्रीम कोर्ट ने Delhi Agricultural Marketing Board vs Bhagwan Devi मामले में दिया।
इस फैसले का असर भूमि विवाद (land dispute cases), सरकारी भूमि अधिग्रहण (government land acquisition), और अर्बिट्रेशन कानून (Arbitration Act in India) से जुड़े मामलों पर गहरा पड़ेगा। यह व्यवसायियों, निवेशकों, भूमि खरीदारों और कानूनी पेशेवरों के लिए बेहद महत्वपूर्ण है।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला दिल्ली के नरेला-बवाना रोड पर स्थित 33 एकड़ भूमि के अधिग्रहण से जुड़ा था। दिल्ली सरकार ने इस भूमि को Delhi Agricultural Marketing Board (DAMB) को सौंपा था ताकि वहां एक नया अनाज बाजार स्थापित किया जा सके।
मुख्य विवाद
- इस भूमि का 6 बीघा 10 बिस्वा हिस्सा भगवान देवी नामक महिला ने 1959 और 1971 में खरीदा था।
- सरकार ने 1986 में इस भूमि का अधिग्रहण कर लिया और DAMB को सौंप दिया।
- भगवान देवी ने 1987 में Delhi High Court में याचिका दायर कर दावा किया कि यह भूमि गलत तरीके से अधिग्रहित की गई थी।
- विवाद सुलझाने के लिए DAMB ने 1988 में भगवान देवी से समझौता किया और भूमि का आधा हिस्सा उसे लौटाने पर सहमति जताई।
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कानूनी पेंच: क्या DAMB को भूमि वापस देने का अधिकार था?
समझौते के तहत, DAMB ने तय किया कि:
- भगवान देवी 1986 के अवार्ड के अनुसार मुआवजा स्वीकार करेंगी।
- DAMB, उन्हें आधी भूमि वापस देगा और उसका उचित मूल्य वसूल करेगा।
- किसी भी विवाद को DAMB के चेयरमैन द्वारा हल किया जाएगा।
लेकिन मामला तब पेचीदा हो गया जब DAMB को एहसास हुआ कि वह बिना सरकारी अनुमति के भूमि वापस नहीं दे सकता।
मामला कैसे बढ़ा?
- 2004: भगवान देवी ने DAMB से “समझौते” के आधार पर भूमि वापस लेने के लिए Arbitration (मध्यस्थता) की मांग की।
- 2007: मध्यस्थ (Arbitrator) ने भगवान देवी के पक्ष में फैसला सुनाया और DAMB को समझौते का पालन करने को कहा।
- 2013: दिल्ली हाईकोर्ट ने DAMB की अपील खारिज कर दी।
- 2014: DAMB ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की।
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सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला (2025)
मुख्य बिंदु:
- सरकारी अधिग्रहित भूमि वापस नहीं दी जा सकती – कोर्ट ने कहा कि जब कोई भूमि सरकार द्वारा अधिग्रहित हो जाती है, तो उसे निजी समझौते के जरिए वापस नहीं दिया जा सकता।
- DAMB के पास भूमि हस्तांतरित करने का अधिकार नहीं था – क्योंकि सरकार ने DAMB के नाम पर कोई “कन्वेयंस डीड” (Conveyance Deed) जारी नहीं की थी।
- समझौता ‘Public Policy’ के खिलाफ था – कोर्ट ने इसे “सार्वजनिक नीति का उल्लंघन” बताया और कहा कि सरकारी अधिग्रहण के उद्देश्य को निजी समझौतों के जरिए निष्क्रिय नहीं किया जा सकता।
- मध्यस्थ (Arbitrator) का निर्णय रद्द – सुप्रीम कोर्ट ने 2007 के आर्बिट्रेटर के अवार्ड को अवैध करार देते हुए निरस्त कर दिया।
फैसले का असर:
- भूमि अधिग्रहण (Land Acquisition) मामलों में स्पष्टता आएगी।
- सरकारी एजेंसियां निजी समझौते नहीं कर सकतीं – केवल सरकार ही किसी भूमि को किसी व्यक्ति को हस्तांतरित कर सकती है।
- मध्यस्थता (Arbitration) में सरकार की नीति सर्वोपरि होगी – यानी कोई भी निजी समझौता “Public Policy” के खिलाफ नहीं हो सकता।
जज ने कहा:
“When the State uses its sovereign power of eminent domain and acquires land for a public purpose, as in the case on hand, i.e., for establishment of a grain market under the control of a statutory Board, such an exercise cannot be set at naught by the beneficiary of such acquisition, viz., the statutory Board, by entering into a private agreement shortly after the acquisition so as to reverse the usage of the power of eminent domain by the State. Validating this dubious enterprise by a statutory beneficiary of a compulsory acquisition would be nothing short of permitting a fraud on the exercise of such sovereign power by the State. Viewed thus, the agreement dated 30.09.1988 was clearly in contravention of the fundamental policy of Indian law and the Arbitral Award dated 10.07.2007, upholding the said agreement, was equally so.”
Hindi Translation:
“जब राज्य अपनी संप्रभु शक्ति का उपयोग करते हुए किसी सार्वजनिक उद्देश्य के लिए भूमि का अधिग्रहण करता है, जैसा कि इस मामले में हुआ, अर्थात एक वैधानिक बोर्ड के नियंत्रण में अनाज मंडी की स्थापना के लिए, तो ऐसे अधिग्रहण के लाभार्थी (वैधानिक बोर्ड) द्वारा भूमि अधिग्रहण के तुरंत बाद किसी निजी समझौते में प्रवेश कर इस अधिग्रहण को निरस्त करना संभव नहीं है। यदि किसी वैधानिक लाभार्थी को अनिवार्य भूमि अधिग्रहण के बाद इस प्रकार का समझौता करने की अनुमति दी जाती है, तो यह राज्य की संप्रभु शक्ति के दुरुपयोग को मान्यता देने जैसा होगा, जो कि एक प्रकार का धोखाधड़ी होगा। इस दृष्टिकोण से देखा जाए तो 30.09.1988 को किया गया समझौता भारतीय कानून की मौलिक नीतियों का उल्लंघन था और 10.07.2007 को दिया गया मध्यस्थीय निर्णय, जिसने इस समझौते को बरकरार रखा, वह भी अवैध था।”
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व्यवसायियों, निवेशकों और कानूनी पेशेवरों के लिए महत्वपूर्ण सबक
- सरकारी अधिग्रहण की भूमि पर निवेश से पहले सावधानी बरतें।
- यदि कोई सरकारी एजेंसी समझौता कर रही हो, तो सुनिश्चित करें कि वह कानूनन वैध है।
- मध्यस्थता निर्णय (Arbitration Award) भी “Public Policy” के विरुद्ध नहीं हो सकता।
निष्कर्ष
सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय सरकारी भूमि अधिग्रहण से जुड़े मामलों के लिए एक मील का पत्थर साबित होगा। इस फैसले से यह स्पष्ट हो गया है कि सरकारी एजेंसियां भी सरकारी नीति से ऊपर नहीं हैं और बिना उचित अनुमति के कोई भी अधिग्रहित भूमि वापस नहीं कर सकतीं।
👉 आप इस फैसले के बारे में क्या सोचते हैं? क्या सरकार को ऐसी भूमि वापस देने का अधिकार होना चाहिए? कमेंट में अपनी राय साझा करें!