क्या सिर्फ DNA Evidence और गर्भावस्था से बलात्कार साबित हो सकता है? क्या Consent (सहमति) का कोई रोल नहीं होता?
कल्पना कीजिए, एक युवती अपने पड़ोसी के घर Ludo खेलने जाती है, लेकिन कुछ महीनों बाद पता चलता है कि वह गर्भवती है। वह आरोप लगाती है कि पड़ोसी ने उसके साथ बलात्कार किया।
दिल्ली हाईकोर्ट ने CRL.A. 242/2023 के एक चर्चित केस में यही सवाल उठाया और आरोपी को बरी कर दिया। कोर्ट ने साफ किया कि DNA Evidence सिर्फ शारीरिक संबंध साबित करती है, बलात्कार नहीं। असली सवाल सहमति का है, और इसे साबित करने में पुलिस और कोर्ट नाकाम रहे।
यह फैसला भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 376 के तहत DNA Evidence और Consent के महत्व को रेखांकित करता है। अगर आप क्रिमिनल लॉ(Criminal Law), रेप केस(Rape Case) या फर्जी आरोपों से जुड़े मामलों में रुचि रखते हैं, तो यह ब्लॉग आपके लिए है!
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केस की पृष्ठभूमि: क्या हुआ था?
मामले का नाम और कोर्ट
- केस: NATHU versus STATE (CRL.A. 242/2023)
- कोर्ट: Delhi High Court
- न्यायाधीश: जस्टिस अमित महाजन(JUSTICE AMIT MAHAJAN)
- तारीख: 20 मार्च, 2025
आरोपों का सार
- युवती (पीड़िता) का आरोप:
- आरोपी (नथु) उसका पड़ोसी था और उसे Ludo खेलने के बहाने अपने घर बुलाता था।
- उसने दावा किया कि नथु ने उसके साथ 4-5 बार जबरन संबंध बनाए।
- 6 महीने बाद, जब उसे पता चला कि वह गर्भवती है, तब उसने FIR दर्ज कराई।
- आरोपी का पक्ष:
- नथु ने कहा कि रिश्ता सहमति (Consent) से था।
- DNA Evidence सिर्फ यह साबित करती है कि बच्चे का पिता वह है, लेकिन बलात्कार नहीं।
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कोर्ट ने क्यों दी आरोपी को राहत? 3 बड़े कारण
1. DNA Evidence अकेले बलात्कार साबित नहीं कर सकती
- DNA रिपोर्ट (Ex. PW9/A) ने साबित किया कि बच्चे का पिता आरोपी है।
- लेकिन कोर्ट ने कहा:
- “DNA सिर्फ शारीरिक संबंध दिखाती है, सहमति नहीं।”
- “बलात्कार साबित करने के लिए यह जरूरी है कि संबंध बिना सहमति के हुए हों।”
2. Consent (सहमति) का सबूत नहीं मिला
- युवती ने माना कि वह खुद आरोपी के घर जाती थी और उसके प्रति स्नेह महसूस करती थी।
- अगर जबरदस्ती होती, तो वह बार-बार क्यों जाती?
- कोई मेडिकल सबूत नहीं (चोट, जबरदस्ती के निशान) मिले।
3. FIR में देरी और गवाहों के बयानों में विरोधाभास
- घटना: अक्टूबर-नवंबर 2017
- FIR दर्ज: 30 जनवरी 2018 (2-3 महीने बाद)
- कोर्ट का नजरिया:
- “अगर सच में बलात्कार हुआ होता, तो युवती ने तुरंत शिकायत क्यों नहीं की?”
- सुप्रीम कोर्ट ने Tulshidas Kanolkar v. State of Goa (2003) में कहा था कि FIR में देरी का संतोषजनक स्पष्टीकरण होना चाहिए।
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माननीय न्यायमूर्ति अमित महाजन का केस के विभिन्न पहलुओं पर विस्तृत विश्लेषण
1. On DNA Evidence vs Consent
English:
“The DNA report merely proves paternity—it does not and cannot, by itself, establish the absence of consent. It is trite law that the offence under Section 376 of the IPC hinges on the absence of consent.”
Hindi:
“डीएनए रिपोर्ट केवल पितृत्व साबित करती है—यह स्वयं में, सहमति की अनुपस्थिति साबित नहीं कर सकती। यह स्थापित कानून है कि आईपीसी की धारा 376 का अपराध सहमति की अनुपस्थिति पर निर्भर करता है।”
2. On Delay in FIR
English:
“The delay is not merely a procedural lapse but one that directly affects the credibility of the prosecution’s case. The possibility of a consensual relationship later being reframed under societal pressure cannot be ruled out.”
Hindi:
“FIR में देरी केवल एक प्रक्रियात्मक चूक नहीं है, बल्कि यह सीधे तौर पर अभियोजन के मामले की विश्वसनीयता को प्रभावित करती है। सामाजिक दबाव में एक सहमतिपूर्ण संबंध को बाद में बलात्कार के रूप में पेश किए जाने की संभावना को खारिज नहीं किया जा सकता।”
3. On Material Improvements in Testimony
English:
“The threat allegation appeared for the first time during trial—a material improvement that casts serious doubt on the veracity of the prosecutrix’s claims.”
Hindi:
“धमकी का आरोप पहली बार सुनवाई के दौरान सामने आया—यह एक महत्वपूर्ण सुधार (मटेरियल इम्प्रूवमेंट) है जो पीड़िता के दावों की सच्चाई पर गंभीर संदेह पैदा करता है।”
4. On Benefit of Doubt
English:
“When two views are possible—one pointing to guilt and the other to innocence—the view favourable to the accused must be adopted.”
Hindi:
“जब दो दृष्टिकोण संभव हों—एक अपराध की ओर इशारा करता हो और दूसरा निर्दोषता की ओर—तो आरोपी के पक्ष वाला दृष्टिकोण अपनाया जाना चाहिए।”
5. Final Acquittal Order
English:
“The evidence led by the prosecution does not meet the standard of proof required. The benefit of doubt must, and does, go to the appellant.”
Hindi:
“अभियोजन द्वारा पेश किए गए सबूत आवश्यक स्तर के प्रमाण को पूरा नहीं करते। संदेह का लाभ अपीलार्थी को मिलना चाहिए, और मिलता है।”
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इस फैसले का क्या असर होगा?
1. DNA Evidence का सही इस्तेमाल
- DNA टेस्ट सिर्फ पितृत्व साबित करती है, बलात्कार नहीं।
- सहमति साबित करने के लिए अन्य सबूत (मेडिकल, गवाह, व्यवहार) जरूरी हैं।
2. Consent का महत्व
- भारतीय कानून में, बलात्कार का मतलब है “बिना सहमति के संबंध”।
- अगर पीड़िता ने सहमति दी थी, तो केस नहीं बनता, चाहे DNA Match हो जाए।
3. फर्जी केस से बचाव
- अगर कोई सहमति से रिश्ता बनाता है और बाद में बदनामी के डर से बलात्कार का आरोप लगाता है, तो कोर्ट ऐसे केस को खारिज कर सकता है।
निष्कर्ष: क्या यह फैसला सही है?
दिल्ली हाईकोर्ट ने साफ किया कि “बलात्कार साबित करने के लिए सिर्फ DNA Evidence काफी नहीं है। सहमति का सवाल जरूरी है।”
क्या आपको लगता है कि यह फैसला सही है? क्या बलात्कार के मामलों में DNA Evidence और Consent को एक साथ देखना चाहिए? कमेंट में अपनी राय शेयर करें!
Disclaimer: यह ब्लॉग केवल शैक्षिक उद्देश्यों के लिए है। किसी विशेष मामले में कानूनी सलाह के लिए वकील से संपर्क करें।